भारत में मुद्रा पूर्ति की अवधारणा की व्याख्या

सुखमय चक्रवर्ती कमेटी रिपोर्ट (1985) भारत के संदर्भ में मुद्रा की पूर्ति कीअवधारणा पर विस्तृत प्रकाश डालती है। रिजर्व बैंक के एक कार्यकारी समूह (Working group) ने 1961 में अपनी रिपोर्ट मुद्रा की पूर्ति की अवधारणा के संबंध में दी।

भारत में मुद्रा पूर्ति की अवधारणा

इस कार्यकारी कसमूह द्वारा दी गयी मुद्रा की पूर्ति की अवधारणा को ‘मुद्रा पूर्ति के कशुद्ध बैंकिंग सिद्धांत’ के नाम से जाना जाता है क्योंकि यह कुल संपत्ति =कुल दायित्व की समता पर आधारित है। इसकी व्याख्या इसके पूर्व हम लोगों ने की रिजर्व बैंक के इस कार्यकारी समूह की रिपोर्ट के 1964 में प्रकाशित हुयी, मुद्रा की पूर्ति को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है- अनुसार जो

Ms = C+D+R

जिसमें C = करेंसी, D = व्यापारिक बैंक के साथ माँग जमा तथा R = रिजर्व बैंक के पास संचित कोष ।

(क) C या जनता में प्रचलित नकद नोट तथा सिक्के (राजकीय कोषागार तथा रिजर्व बैंक आफ इंडिया में रखे हुए केंद्रीय तथा राज्य सरकारों के पास के नकद नोट तथा सिक्कों को छोड़कर)- अनुसूचित तथा अननुसूचित बैंकों तथा सहकारी बैंकों के नकद तथा मौद्रिक सिक्के भी इसमें सम्मिलित नहीं होंगे। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि राज्य तथा केंद्रीय सरकारों के नकदी कोष को मुद्रा की पूर्ति में सम्मिलित नहीं किया जाता है क्योंकि ये नकदी कोष उनके प्रशासनिक कार्यों के फलस्वरूप एकत्रित होते हैं, व्यापारिक कार्यों के फलस्वरूप नहीं उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार अनुसूचित तथा अनुसूचित बैंकों के पास जो नकदी के रूप में मुद्रा, नोट आदि होते हैं उन्हें मुद्रा की पूर्ति में सम्मिलित नहीं किया जाता है। इसके जो कोष रिजर्व बैंक में होते हैं उन्हें भी मुद्रा की पूर्ति में सम्मिलित नहीं किया जाता है। इसका कारण यह है कि इन्हें तब तक प्रयोग में नहीं लाया जाता जब तक कि बैंकों के पास माँग जमा (demand deposits) रहता है, ये कोष बैंकों की तरलता की स्थिति को बनाये रखने के लिए निष्क्रिय रूप में रहते हैं।

(ख) D = अनुसूचित तथा अननुसूचित बैंकों के बीच जमा तथा राज्य सरकारी बैंकों के माँग जमा- इस संबंध में कुछ बातें उल्लेखनीय है ।

(i) अनुसूचित बैंक वे बैंक हैं जिनकी प्रदत्त पूँजी तथा कोष 5 लाख रूपये या इससे अधिक है तथा इससे कम पूँजी तथा कोष वाले बैंक अननुसूचित बैंक कहे जाते हैं।

(ii) दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि मुद्रा पूर्ति के अंतर्गत माँग जमाओ (ऐसे जमा जिन्हें किसी समय माँ करने पर निकाला जा सकता है) को ही सम्मिलित किया जाता है सावधि जमा को (fixed deposits) को इसमें सम्मिलित नहीं किया जाता है क्योंकि (हम देख चुके हैं) माँग जमा ही साख सृजन के आधार होते हैं सावधि जमा इसके आधार नहीं होते। पर आजकल सावधि जमाओं को भी मुद्रा की पूर्ति में सम्मिलित किया जाने लगा है।

(iii) अप्रयुक्त ओवरड्राफ्ट को भी मुद्रा की पूर्ति में सम्मिलित नहीं किया जाता क्योंकि वास्तविक रूप में ये मुद्रा का कार्य नहीं करते हैं।

(ग) अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के खाना नं. 2 में नकदी आदि जो रिवर्ज बैंक में रखे रहते हैं, उन्हें निवल रूप में (आय-व्यय के अवशेष) मुद्रा की पूर्ति में सम्मिलित किया जाता है।

रिजर्व बैंक के इस कार्यकारी समूह के दृष्टिकोण को लोगों ने अत्यंत ही संकुचित दृष्टिकोण के रूप में लिया। इसके संबंध में और व्यापक दृष्टिकोण अपनाने के लिए 1977 में एक दूसरे समूह को गठित किया गया।

इस समूह ने मुद्रा की पूर्ति का निम्नांकित दृष्टिकोण अपनाया-

जिसमें M1=C +D + R (जैसा 1964 वाली रिपोर्ट में लिया गया था)।.

M2 = M1= डाकघरों तथा व्यापारिक बैंकों के साथ बचत जमायें ।

M4 = M3 + डाकघरों तथा बचत संघटनों की संपूर्ण जमायें ।

ऊपर दी गयी व्यवस्था से स्पष्ट है कि दूसरे कार्यकारी समूह द्वारा दी गयी मुद्रा की पूर्ति की अवधारणा अधिक विस्तृत तथा कार्यात्मक (functional) है। रिजर्व बैंक भारत में मुद्रा की पूर्ति की मात्रा के अनुमान के संबंध में यह दृष्टिकोण प्रयोग में ला रहा है। इस दृष्टिकोण में M अधिक तरल है जबकि M2, M3, M4 में तरलता क्रमशः कम होती गयी है। इस प्रत्यागम के सबसे अंतर्गत मुद्रा की पूर्ति की अवधारणा 1964 वाली धारणा से अधिक व्यापकक है क्योंकि इसके अंतर्गत सावधि जमाओं (time deposit) को भी सम्मिलित किया गया है जबकि पहले वाले प्रत्यागम में इसे सम्मिलित नहीं किया गया है। सावधि जमा का मुद्रा की पूर्ति में सम्मिलित किया जाना उचित है क्योंकि सावधि जमाओं के आधार पर भी साख सृजन किया जा सकता है तथा ये जमा भी मुद्रा के नजदीकी स्थानापन्न हो सकते हैं। मुद्रा की अवधारणा का दूसरा दृष्टिकोण एक दूसरी दृष्आि से भी व्यापक तथा उपयोगी है। इस अवधारणा के द्वारा हमें अर्थव्यवस्था के संपूर्ण मौद्रिक संसाधनों का ज्ञान हो जाता है। M3 तथा M अर्थव्यवस्था की मौद्रिक संसाधनों की स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं।

नयी अवधारणा की एक और विशेषता है जो इसे अधिक व्यावहारिक तथा उपयोगी बना देती है। इस अवधारणा में मुद्रा की पूर्ति के चार स्वरूप रखे गये हैं- M, M2, M3 तथा Mg! इसमें M, तो पुराने प्रत्यागम के ही समान हैं । मुद्रा पूर्ति की यह अवधारणा कुल मुद्रा की पूर्ति का एक वर्गीकृत चित्र सामने रखती है। इससे न केवल मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि का ज्ञान होता है। बल्कि यह भी ज्ञात होता है कि मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि M, M2, M3 तथा M4 में से किस रूप में हो रही है। मुद्रा की पूर्ति को नियंत्रित करने के संबंध में नीति-निर्धारण में यह दृष्टिकोण अधिक उपयोगी है।

मुद्रा की पूर्ति की अवधारणा की व्याख्या तब तक अपूर्ण सी रहेगी। जब तक कि निधिमुद्रा (Reserve Money) की धारणा पर प्रकाश न डाला जाय । चक्रवर्ती समिति की रिपोर्ट के अनुसार निधि

(ग) विदेशी विनिमय बैंक (Foreign Exchange Bank)- ये बैंक एक विशिष्ट प्रकार के बैंक होते हैं जो विदेशी व्यापार की वित्तीय व्यवस्था से संबद्ध होते हैं। इनका प्रमुख कार्य विदेशी विनिमय बिलों का क्रय-विक्रय होता है जिससे विदेशी व्यापार की वित्तीय आवश्यकता की पूर्ति हो सके। चूँकि इन बैंकों को विदेशी मुद्रा के भुगतान की व्यवस्था करनी पड़ती है इसलिए ये बैंक अपने पास विदेशी मुद्राओं का स्टाक रखते हैं तथा अपनी शाखायें विदेशों में भी खोले रहते हैं। अपने देश के अधिकांश विदेशी विनिमय बैंक विदेशियों के हाथ में हैं। कुछ व्यापारिक बैंक भी इस क्रिया को करते हैं पर विदेशी व्यापार में अधिक प्रभुत्व विदेशी बैंकों का ही है।

(घ) केंद्रीय बैंक (Central Bank)- केंद्रीय बैंक राष्ट्रीय बैंक होता है, यह सरकारी बैंक होता है तथा यह संपूर्ण मुद्रा बाजार में शीर्ष स्थिति पर विद्यमान है। यह बैंकों का बैंक है,उनकी कार्यप्रणाली का नियंत्रक होता है। यह पत्र मुद्रा का निर्गमन करता है, साख मुद्रा को नियंत्रित करता है तथा देश की मौद्रिक नीति का संरक्षक होता है। इसकी व्याख्या आगे विस्तार से की गयी है।

(ङ) कृषि कार्य (Agricultural Banks) – कृषि प्रधान देशों के कृषि तथा कृषि क्षेत्र की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक विशेष प्रकार के बैंक खोले गये हैं। कृषकों को दो प्रकार के ऋणों की आवश्यकता होती है। प्रथम बीज, खाद, हल आदि को क्रय करने के लिए अल्पकालीन ऋण तथा दूसरे भूमि, बैल, मशीन आदि खरीदने के लिए दीर्घकालीन ऋण दोनों प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के कृषि बैंक खोले गये हैं। ये बैंक इस प्रकार हैं-

(1) कृषि सहकारी बैंक

(2) भूमि विकास बैंक (Land Development Banks) तथा

(3) क्षेत्रीय ग्रामीण विकास बैंक (Regional Rural Development Banks)।

 

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