राजकोषीय घाटा क्या है? इसको कैसे नियंत्रित किया जा सकता है

राजकोषीय घाटा राजकोषीय घाटा घाटे की सबसे व्यापक तथा महत्त्वपूर्ण धारणा है। राजकोषीय घाटा सरकार की सम्पर्ण देयता प्रदर्शित करती है जो किसी वर्ष में सरकार के सम्पूर्ण बजेटरी व्यवहार के कारण उत्पन्न हुआ है। बजेटरी व्यवहार से उत्पन्न जो भी घाटा हो यदि उसकी वित्तीय व्यवस्था (क) रिजर्व बैंक से उधार लेकर कर लिया जाय तो इस स्थिति में राजकोषीय घाटा = सरकार की RBI के प्रति देयता = बजेटरी घाटा हीनार्थ प्रबन्धन (मुद्रा की = पूर्ति में वृद्धि। पर यदि राजकोषीय घाटे की पूर्ति (ख) बाजार उधारी के द्वारा करे। तो संकीर्णरूप में जैसा 1991 से पहले लिया जाता था, केवल (क) ही घाटा के रूप में प्रदर्शित किया जायेगा और हीनार्थ प्रबन्धन को यहीं तक सीमित रखा जायेगा पर 1991 के बाद घाटे को राजकोषीय घाटा के द्वारा व्यक्त किया गया, इस प्रकार हीनार्थ प्रबन्धन को राजकोषीय घाटा या कुल देवता (RBI के प्रतिदेयता + अन्य स्त्रोतों से उधारी) के द्वारा व्यक्त किया जाता है।

सामान्यतया बढ़ते हुए राजकोषीय घाटे को जो जी.डी.पी. के लगभग 3% से अधिक हों, गम्भीर राजकोषीय असन्तुलन का प्रतीक माना जाता है। प्रायः निम्नांकित कारणों से बढ़ते हुए राजकोषीय घाटे को गम्भीर राजकोषीय असन्तुलन के सूचक के रूप में लिया जाता है।

(क) राजकोषीय घाटा, किसी वर्ष में सरकार द्वारा की जाने वाली वार्षिक उधारी को प्रदर्शित करता है और संचयी राजकोषीय घाटा ही सार्वजनिक ऋण प्रदर्शित करता है। बढ़ते हुये सार्वजनिक ऋण के कारण अर्थव्यवस्था ॠण जाल में फँस सकती है, एक ऐसी भयावह स्थिति जबकि ऋण सम्बन्धी देयता को पूरा करने के लिए भी नवे ऋण की आवश्यकता होती है।

(ख) बढ़ते राजकोषीय घाटे के साथ बढ़ता हुआ सार्वजनिक ऋण ब्याज भुगतान सम्बन्धी दायित्व में वृद्धि लाता है जो राजस्व घाटा में वृद्धि लाता है, जो राजकोषीय घाटा में वृद्धि लाता है,इस प्रकार बढ़ता हुआ राजकोषीय घाटा राजकोषीय घाटा में संचयी रूप से वृद्धि लाता है इतना ही नहीं बढ़ता हुआ ब्याज दायित्व सरकार के उपभोग व्यय में वृद्धि लाता है। इस प्रकार सरकार के राजरूव का एक बहुत बड़ा भाग (केन्द्रीय बजट 2011-12 के अनुसार कुल व्यय का 18% ब्याज को पूरा करने के लिए किया जाता है) व्याजदायित्व को पूरा करने में खर्च होता है जो अन्यथा पूंजी निर्माण पर व्यय होगा।

(ग) बढ़ते हुए राजकोषीय घाटे का अर्थ हुआ बढ़ती हुयी मात्रा में पूँजी बाजार से सरकार द्वारा उधारी या संसाधनों की निकासी इस प्रकार सरकार संसाधनों को क्राउट आउट करती है। जिसके परिणामस्वरूप निजी क्षेत्र में उपलब्ध संसाधनों में कमी आती है तथा उनके द्वारा दी जाने वाली ब्याज दर में वृद्धि होती है। ऐसी स्थिति में जबकि आर्थिक नीति में निजी क्षेत्र पर बल हो, बढ़ता हुआ राजकोषीय घाटा अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव सृजित करेगा।

(घ) राजकोषीय घाटा बजेटरी घाटा तथा सार्वजनिक उधारी के कुल योग द्वारा प्रदर्शित होता है, पर बजेटरी घाटा मौद्रीकृत घाटा या हीनार्य प्रबन्धन (संकीर्ण अर्थ में प्रदर्शित करता है। यदि राजकोषीय घाटा में बजेटरी घाटे का अंश अधिक हो तो बढ़ता राजकोषीय घाटा अधिक|

स्फीतिक होगा। इतना ही नहीं बढ़ते हुए राजकोषीय घाटा के कारण अर्थव्यवस्था में समग्र माँग में वृद्धि होगी, फलस्वरूप इसके कारण दबाव बढ़ेगा।

(ङ) राजकोषीय घाटा यदि स्फीतिक हो तो इसके कारण अर्थव्यवस्था में निर्यात हतोत्साहित होगा, इसीलिए डॉ. वाई वी रेड्डी कहते हैं कि राजकोषीय घाटा चालू खाते घाटे में फैल जायेगा और उसे और खराब कर देगा। इस प्रकार आन्तरिक असन्तुलन वैदेशिक असन्तुलन में फैल सकता है।

भारत में राजकोषीय घाटा की स्थिति तथा राजकोषीय समेकन (Fiscal consolidation) सकल राजकोषीय घाटा जो 1970 के मध्य सकल घरेलू उत्पाद का 4% था (ऐसी स्थिति में जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से विकास पर बल बहुत अधिक था) तथा अस्सी के दशक में 6% था, 1985-86 के बाद से 8% से भी अधिक हो गया, 1990-91 में जब भारत घोर आर्थिक संकट में था तब राजकोषीय घाटा 8.3% हो गया। इसीलिए सरकार ने राजकोषीय घाटा को कम करने (जिससे वित्तीय सन्तुलन कायम रह सके) अनेक कदम उठाये, परिणामस्वरूप राजकोषीय घाटा तथा अन्य घाटों की स्थिति आर्थिक सुधारों की परवर्ती अवधि में इस प्रकार रहीं

केन्द्र सरकार के घाटे की प्रवृत्तियाँ (जी.डी.पी. % रूप में)

भारत में विभिन्न वर्षों में विभिन्न प्रकार के घाटे का विवेचन या राजकोषीय असन्तुलन या अस्थिरता की व्याख्या जैसा पीछे दी गयी सारिणी में दिया गया है, हम तीन वर्गों में रखकर कर सकते हैं – (1) एफ.आर. बी. एम. एक्ट लागू होने के पूर्व (2) 2003-04-2007-08 के बीच या विश्व रेशेसन शुरू होने के पूर्व होने की अविध तथा (3) 2008-09 से अब तक।

(क) एफ.आर.बी.एम. के पूर्व की अवधि – 1991 में जब तक लोगों ने आर्थिक सुधार की प्रक्रिया शुरू की उस समय राजस्व, बजेटरी तथा राजकोषीय घाटा की स्थिति गम्भीर तथा चुनौतीपूर्ण थी। आर्थिक सुधारों की शुरुआत में राजकोषीय घाटा सकल जी.डी.पी. का 8.3 प्रतिशत रहा जो अपने में एक गम्भीर राजकोषीय असन्तुलन का संकेत करता है और इस प्रकार की गम्भीर स्थिति आर्थिक सुधारों की परवर्ती अवधि में तथा एफ.आर.बी.एम अधिनियम की पूर्ववर्ती अवधि में बनी रही। इस अविध में जी.डी.पी. के प्रतिशत रूप में राजस्व घाटा लगभग 4.4% तथा राजकोषीय घाटा औसतन 6% बना रहा। सबसे गम्भीर प्रवृत्ति इस अवधि की यह रही कि राजकोषीय घाटा के अनुपात के रूप में राजस्व घाटा 70% से ऊपर रहा, जो 2002-03 में लगभग 75% तथा 2003-04 में लगभग 80% रहा।

(ख) एफ. आर. बी.एम. के बाद तथा विश्व रेशेसन के पूर्व की अवधि राजकोषीय समेकन तथा राजकोषीय असन्तुलन दूर करने की दिशा में सरकार ने अनेक प्रयास किए पर इस दिशा में सबसे महत्त्वपूर्ण संवैधानिक कदम राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबन्धन अधिनियम के क्रियान्वयन के लागू होने के साथ लिया गया (इन सबकी व्याख्या आगे इसी अध्याय में की गयी है)। इसके द्वारा सरकार के बजेटरी व्यवहारों के आय तथा इस प्रकार सरकार द्वारा सृजित विभिन्न प्रकार के घाटों के ऊपर जो एक संवैधानिक ऊपरी सीमा निश्चित की गयी उसका प्रभाव स्पष्ट रूप से रहा और इस अवधि में राजस्व घाआ जो 2002-03 में 4.4% था, घट कर 2007-08 (बजट) में 1.1% हो गया (एफ.आर.बी.एम. की व्यवस्था के अनुसार इसे शून्य करने के लक्ष्य की दिशा में ठोस कदम) तथा राजकोषीय घाटा जो शुरू में लगभग 6% था 2007-08 के अनुमान के अनुसार 2.7% रहा (जो 3% के एफ.आर.बी.एम लक्ष्य से नीचे था और इतना ही नहीं राज्यकोषीय घाटा-राजस्व घाटा अनुपात जो 2003-04 में लगभग 80% था घटकर 2007-08 में 41.4% हो गया।

(ग) अवमन्दन के बाद की अवधि – वैश्विक वित्तीय मन्दी तथा परिणामी आर्थिक अवमन्दन प्रभाव को निरस्त करने के लिए सरकार ने विस्तारक राजकोषीय नीति का सहारा लिया जिसमें अनेक वित्तीय पैकेज दिये गये जिससे अर्थव्यवस्था में समग्र माँग में वृद्धि हो, परिणामस्वरूप सरकार के सार्वजनिक राजस्व व्ययों में तेजी से वृद्धि हुयी और इसके परिणामस्वरूप सभी घाटों में तेजी से वृद्धि हुयी और 2008-09 में जी.डी.पी. अनुपात में राजस्व घाटा 5.2% तथा राजकोषीय घाटा 6.4% हो गया तथा राजकोषीय घाटा-राजस्व घाटा अनुपात 74% हो गया। इस अविध के अन्तिम चरण में स्फीतिक दबाव की स्थिति बढ़ी फलस्वरूप सरकार को संकोचक राजकोषीय नीति अपनानी पड़ी, फलस्वरूप 2011-12 केन्द्रीय बजट अनुमान के अनुसार, राजस्व घाटा 3.4% तथा राजकोषीय घाटा 4.5% होगा।

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